Thursday, July 6, 2017

रसूल हम्ज़ातोव की 'मेरा दाग़िस्तान' का दूसरा खंड - अन्तिम


पुस्तक

अवार भाषा में त्‍येह शब्‍द के दो अर्थ हैं - भेड़ की खाल और पुस्‍तक.

कहा जाता है कि 'हर किसी को अपना सिर और सिर पर समूरी टोपी को सुरक्षित रखना चाहिए.' जैसा कि सभी जानते हैं, हमारे यहाँ समूरी टोपी भेड़ की खाल से बनाई जाती है. लेकिन पहाड़ी आदमी का सिर सैकड़ों सालों तक वह एकमात्र अलिखित पुस्‍तक था जिसमें हमारी भाषा, हमारा इतिहास, हमारी दास्‍तानें, हमारे किस्‍से-कहानियाँ, आख्‍यान, रीति-रिवाज और वह सभी कुछ सुरक्षित रहा जिसकी जनता ने कल्‍पना की. भेड़ की खाल ने सदियों तक दागिस्‍तान की इस अलिखित पुस्‍तक - पहाड़ी आदमी के सिर - की रक्षा की, उसे गर्माया, उसे सहेजा. बहुत कुछ तो सुरक्षित रह गया और हम तक पहुँच गया, लेकिन बहुत कुछ खो भी गया, रास्‍ते में भटक गया और हमेशा के लिए तबाह हो गया.

इस पुस्‍तक के कई पृष्‍ठ वैसे ही नष्‍ट हो गए, जैसे युद्ध की आग में वीर नष्‍ट हो जाते हैं (समूरी टोपी गोली और तलवार से तो नहीं बचा सकती), लेकिन कुछ उन बदकिस्‍मत राहगीरों की तरह नष्‍ट हो गए जो रास्‍ते से भटक जाते हैं, बर्फीले तूफान में घिर जाते हैं, जिनकी ताकत जवाब दे जाती है, जो खाईं-खड्ड में गिर जाते हैं, हिमानी की लपेट में आ जाते हैं, किसी डाकू-लुटेरे के खंजर के शिकार हो जाते हैं.

कहा जाता है कि भूला और खोया हुआ ही सबसे अच्‍छा और महान होता है.

क्‍योंकि जब हम कविता सुनाते हैं और कोई एक पंक्ति भूल जाते हैं तो हमें उसी की सबसे अधिक जरूरत महसूस होती है.

क्‍योंकि जब मर जानेवाली गाय की याद आती है तो लगता है कि वही दूसरी गउओं से ज्‍यादा दूध देती थी और उसी का दूध सबसे अधिक गाढ़ा होता था.

महमूद के पिता ने अपने शायर बेटे की पांडुलिपियों से भरा हुआ संदूक जला डाला था. पिता को ऐसे लगा था कि कविताएँ उनके निकम्‍मे बेटे का सत्‍यानाश करती हैं. अब सभी यह कहते हैं कि उस संदूक में महमूद की सबसे अच्‍छी कविताएँ थीं.

बातीराय अपने एक गीत को कभी दो बार नहीं गाता था. वह अक्‍सर शादी के वक्‍त नशे में धुत्‍त लोगों के सामने गाया करता था. ये गीत वहीं रह गए. किसी ने भी उन्‍हें नहीं सहेजा. अब सभी लोग यह कहते हैं कि वही उसके सबसे अच्‍छे गीत थे.

इरची कजाक ने शामहाल के दरबार में बहुत-से गीत गाए. लेकिन उसके बहुत कम गीत ही दरबार की सीमा से बाहर आम लोगों तक पहुँचे. इरची कजाक खुद यह कहा करता था - चाहे कितना ही क्‍यों न गाओ, न तो शामहाल और न गधा ही गीतों को समझता है.

कहा जाता है कि इरची कजाक की दरबार में खो जानेवाली कविताएँ ही सबसे अच्‍छी थीं.

आग में जला दिए गए पंदूरों की आवाज हम तक नहीं पहुँची. नदी में फेंक दिए गए चोंगूरों की मधुर धुनें हम तक नहीं पहुँच सकीं. मौत के घाट उतार दिए गए और हताहत लोगों के लिए आज मेरा दिल उदास होता है.

किंतु जो कुछ बाकी बच गया है, जब मैं उसे सुनता और पढ़ता हूँ तो मेरा दिल खिल उठता है. मैं सच्‍चे दिल से गरीब पहाड़ी लोगों को धन्‍यवाद देता हूँ जो हमारी अलिखित पुस्‍तकों को अपनी हृदयों में सहेजे रहे और उन्‍हें हमारे समय तक लाए.

ये दास्‍तानें, ये किस्‍से-कहानियाँ, ये गीत-गाने मानो अब कलम से कागज पर लिखे और किताबों के रूप में छपे हुए से कहते हैं - 'हम, जो अलिखित हैं, सैकड़ों सालों तक सभी तरह की कठिनाइयों का सामना करते हुए जिंदा रहे और तुम तक पहुँच गए. लेकिन यह जानना दिलचस्‍प होगा कि तुम जो इतने सुंदर ढंग से छपे हुए हो, अगली पीढ़ी तक भी पहुँच पाओगे या नहीं? हम देखेंगे,' वे कहते हैं, 'पुस्‍तकालय, पुस्‍तक संग्रहालय या मानवीय हृदय अधिक भरोसे लायक पुस्‍तक-भंडार हैं.'

बहुत कुछ विस्‍मृत हो जाता है. सैकड़ों पंक्तियों में से केवल एक पंक्ति बची रह जाती है और अगर वह बची रह जाती है तो हमेशा के लिए.

कहा जा चुका है कि पहले अनेक बच्‍चे बहुत ही छोटी उम्र में मर जाते थे.

इमाम शामिल घायलों को नदी में कूदने के लिए मजबूर करता था. लुंज-पुंज सैनिकों की उसे जरूरत नहीं होती थी, क्‍योंकि वे दुश्‍मन से लोहा लेने में असमर्थ होते थे, मगर उन्‍हें खिलाना-पिलाना तो जरूरी होता था.

अब दूसरा जमाना है. बच्‍चों की बहुत अच्‍छी देख-भाल की जाती है, डाक्‍टर उनकी चिंता करते हैं. घायलों की मरहम-पट्टी की जाती है. लँगड़े-लूलों को नकली टाँगें और पाँव दिए जाते हैं. लोगों के मामले में तो इन परिवर्तनों को बहुत ही सराहनीय और मानवीय माना जा सकता है.

किंतु लुंज-पुंज विचारों, कमजोर कविताओं, अधमरी भावनाओं और मुर्दा ही पैदा होनेवाले गीतों के मामले में तो ऐसा नहीं होता? सब कुछ पुस्‍तक में ही रह जाता है. सब कुछ कागज पर ही रह जाता है.

पहले यह कहा जाता था - 'जबानी कही बात खो जाती है, लिखी हुई बाकी रह जाती है.' कहीं अब इसके उलट ही न हो जाए.

मगर आप यह नहीं समझ लीजिएगा कि मैं पुस्‍तक और लिखित भाषा की निंदा कर रहा हूँ. वे तो उस सूर्य की भाँति है जिसने पर्वतों के पीछे से ऊपर उठकर घाटी को रोशन कर दिया, अँधेरे और जहालत को छिन्‍न-भिन्‍न कर डाला. मेरी माँ ने मुझे एक लोमड़ी और एक पक्षी का किस्‍सा सुनाया था. वह इस प्रकार था.

किसी पेड़ पर एक विहगी रहती थी. उसका मजबूत और खासा गर्म घोंसला था जिसमें वह अपने बच्‍चे पालती थी. सब कुछ अच्‍छे ढंग से चल रहा था. लेकिन एक दिन लोमड़ी आई, पेड़ के नीचे बैठकर गाने लगी -

से सारी चट्टानें मेरी,
यह सारा मैदान भी,
सभी खेत-खलिहान भी.
अपनी इस धरती पर मैंने
अपना पेड़ उगाया है,
इसी पेड़ पर लेकिन तूने
अपना नीड़ बनाया है.
इसीलिए तू दे दे मुझको
सिर्फ एक अपना बच्‍चा
वरना काटूँ पेड़ मरें सब
हाल न कुछ होगा अच्‍छा.

अपने प्‍यारे पेड़, प्‍यारे घोंसले और बाकी बच्‍चों को बचाने के लिए विहगी ने अपना सबसे छोटा बच्‍चा लोमड़ी को दे दिया.

अगले दिन लोमड़ी फिर से आ गई, उसने फिर से अपना वही गाना गाया. विहगी को अपना दूसरा बच्‍चा कुर्बान करना पड़ा. इसके बाद तो विहगी अपने बच्‍चों का शोक भी नहीं मना पाती थी - हर दिन ही एक बच्‍चा लोमड़ी के मुँह में चला जाता था.

दूसरे पक्षियों को इस विहगी के दुर्भाग्‍य के बारे में पता चला. वे सभी उड़कर उसके पास आए, पूछने लगे कि क्‍या मामला है. बुद्धू विहगी ने अपनी दर्द-कहानी सुनाई. समझदार पक्षियों ने गाते हुए उससे कहा -

तुम तो खुद ही दोषी चिड़िया
तुम भोली हो, बुद्धू हो
धूर्त लोमड़ी ने तो उल्‍लू
खूब बनाया है तुमको.
पेड़ भला कैसे काटेगी
हमें बताओ, क्‍या दुम से?
तेरे बच्‍चों तक पहुँचेगी
हमें बताओ, क्‍या दुम से?
कहाँ कुल्‍हाड़ी उसकी, बोलो?
और कहाँ पर आरी है?
रहने लगी चैन से अब तो
चिड़िया वहाँ हमारी है.

लेकिन लोमड़ी तो यह कुछ भी नहीं जानती थी और फिर से डराने-धमकाने और बच्‍चा माँगने के लिए आई. वह फिर से यह गाने लगी कि पेड़ काट डालेगी, विहगी के सारे बच्‍चों को मार डालेगी. किंतु वही शब्‍द, जिनसे विहगी बुरी तरह भयभीत हो उठती थी, अब उसे हास्‍यास्‍पद, अपनी डींग हाँकनेवाले और व्‍यर्थ प्रतीत हुए. विहगी ने लोमड़ी को जवाब दिया -

जड़ें बहुत गहरी इस तरु की,
हो कुदाल, तब ही काटो.
तना बड़ा मजबूत पेड़ का
कहाँ कुल्‍हाड़ा, जो काटो.
मेरा नीड़ बड़ा ऊँचा है,
सीढ़ी लाओ तो पहुँचो.

लोमड़ी अपना-सा मुँह लेकर चली गई और उसने वहाँ आना बंद कर दिया. विहगी तो अब भी वहाँ रहती है, बच्‍चे पैदा करती है, बच्‍चे बड़े होते हैं और तराने गाते हैं.

दागिस्‍तान ने अपनी जहालत, पिछड़ेपन और अज्ञान के कारण अपने कितने बच्‍चों को नष्‍ट कर डाला है! खुद को जानने के‍ लिए किताब की जरूरत है. दूसरों को जानने के लिए भी किताब की जरूरत है. पुस्‍तक के बिना कोई भी जाति उस आदमी के समान है जिसकी आँख पर पट्टी बँधी हो, जो इधर-उधर भटकता रहता है और दुनिया को नहीं देख सकता. पुस्‍तक के‍ बिना कोई भी जाति उस व्‍यक्ति के समान है जिसके पास दर्पण न हो, वह अपना चेहरा नहीं देख सकती.

'पिछड़े हुए और जहालत के मारे लोग,' दागिस्‍तान की यात्रा करनेवालों ने हमारे बारे में ऐसा लिखा और कहा. इन शब्‍दों में श्रेष्‍ठता की अभिव्‍यक्ति या दुर्भावना की तुलना में सचाई ज्‍यादा है. 'ये - वयस्‍क बालक हैं,' हमारे संबंध में एक विदेशी ने लिखा.

'इनके पास ज्ञान नहीं है इसका लाभ उठाना चाहिए,' हमारे शत्रुओं का कहना था.

'अगर यहाँ के जनगण युद्धशास्‍त्र में प्रवीण हो जाएँ तो कोई भी इन पर हाथ उठाने की जुर्रत न करे,' एक सेनापति ने कहा था.

'काश हम हाजी-मुरात की दिलेरी और महमूद की प्रतिभा में अपना आज का ज्ञान जोड़ सकते!' पहाड़ी लोग कहते हैं.

'इमाम, हम रुक क्‍यों गए?' एक बार हाजी-मुरात ने शामिल से पूछा. 'हमारी छाती में दिल धधक रहा है और हाथ में तेज खंजर है. इंतजार किस बात का है? हम आगे बढ़कर अपने लिए रास्‍ता बनाएँगे.'

'जरा सब्र से काम लो, जल्‍दी नहीं करो, हाजी-मुरात, तेजी से दौड़नेवाली नदियाँ कभी सागर तक नहीं पहुँचतीं. मैं किताब से सलाह लूँगा - वह क्‍या सलाह देगी. किताब-बड़ी समझदारी की चीज है.'

'इमाम, शायद तुम्‍हारी किताब समझदारी की चीज हो, लेकिन हमें तो बहादुरी की जरूरत है. और बहादुरी है तेज तलवार तथा घोड़े की सवारी में.'

'किताबें भी बहादुर होती हैं.'

किताब... अक्षर, पंक्तियाँ, पृष्‍ठ. हाँ, पृष्‍ठ एक मामूली-सा कागज लग सकता है. लेकिन वह शब्‍दों का संगीत है, भाषा के सुरीलेपन और विचारों का भंडार है. यह तो मैं हूँ जिसने उसे लिखा, वे दूसरे लोग हैं जिनके बारे में मैंने लिखा, जिन्‍होंने अपने बारे में लिखा. यह कागज तो तेज गर्मी है, जाड़े का बर्फीला तूफान है, कल की घटनाएँ, आज के सपने, भविष्‍य का कार्य है.

विश्‍व-इतिहास और हर आदमी के भाग्‍य को दो भागों में बाँटना चाहिए - पुस्‍तक के प्रकट होने के पहले और उसके बाद का भाग. पहला भाग - काली रात है, दूसरा भाग - उजला‍ दिन. पहला भाग - तंग, अँधेरा दर्रा है और दूसरा भाग खुला मैदान या पर्वत-शिखर है.

'शायद जहालत ही वह गुनाह है जिसके लिए इतिहास ने हमें इतनी देर तक और इतनी सख्‍त सजा दी है,' पिता जी कहा करते थे.

दो कालावधियाँ - पुस्‍तकवाली और पुस्‍तक के बिना. इनसान के पास अब बहुत जल्‍द ही, उसी वक्‍त जब वह पहला डग भरने लगता है, ककहरे के रूप में किताब आ जाती है. लेकिन दागिस्‍तान के पास हजारों साल बीतने पर ही पुस्‍तक आई. दागिस्‍तान ने बहुत देर से, बहुत ही देर से पढ़ना-लिखना सीखा.

इसके पहले पहाड़ी लोगों के लिए अनेक सदियों तक आकाश पृष्‍ठ था और तारे वर्णमाला. नीलगूँ बादल दवात थे, बारिश स्‍याही, पृथ्‍वी कागज, घास और फूल - अक्षर थे और खुद ऊँचाई ऐसे पृष्‍ठ पर पढ़ने के लिए झुक जाती थी.

सूरज की लाल किरणें पेंसिलें थीं. उन्‍होंने चट्टानों पर हमारा भूलों से भरा हुआ इतिहास लिखा.

मर्द का बदन-दवात था, खून-स्‍याही और खंजर-पेंसिल. तब मौत की किताब लिखी गई, उसकी भाषा हर किसी की समझ में आ जाती थी, उसके अनुवाद की जरूरत नहीं होती थी.

औरत का दुर्भाग्‍य-दवात था, आँसू-स्‍याही, तकिया-कागज. तब दुख-दर्दों की किताब लिखी गई, लेकिन बहुत कम ही किसी ने उसे पढ़ा, पहाड़ी औरतें दूसरों को अपने आँसू नहीं दिखातीं.

पुस्‍तक, लिखित भाषा... ये हैं वे दो निधियाँ जो भाषाएँ बाँटनेवाला हमें देना भूल गया.

पुस्‍तकें - वे घर की खुली खिड़कियाँ हैं, लेकिन हम बंद दीवारों के भीतर बैठे रहे... खिड़कियों में से पृथ्‍वी और सागर का विस्‍तार तथा लहरों पर तैरनेवाले अद्भुत जहाजों को देखा जा सकता था. हम उन पक्षियों के समान थे, जो, न जाने क्‍यों, जाड़े में गर्म प्रदेश में न जाकर ठंड में ही रह जाते हैं और ठिठुरने पर खिड़कियों पर अपनी चोंचें मारते हैं, ताकि उन्‍हें घर के भीतर, गर्माहट में आ जाने दिया जाए.

पहाड़ी लोगों के होंठ सूखे और प्‍यास के कारण मुरझाए हुए हैं... हमारी आँखें भूखी और जलती हुई हैं.

अगर हम कागज और पेंसिल का इस्‍तेमाल करना जानते होते तो खंजर से इतना अक्‍सर काम न लेते.

हम तलवार बाँधने, घोड़े पर जीन कसने, उछलकर घोड़े पर सवार होने तथा युद्ध-क्षेत्र में पहुँचने में कभी देर नहीं करते थे. इस मामले में हमारे यहाँ न तो लँगड़े-लूले, न बहरे और न अंधे होते थे. लेकिन हमने बहुत छोटे-छोटे, मानो नगण्‍य अक्षरों को जानने में बहुत देर कर दी. यह तो सर्वाविदित है कि जिसके भाव, जिसके विचार लुंज-पुंज हैं, उसकी तो सहारा देनेवाली लाठी भी कोई सहायता नहीं कर सकती.

डेढ़ हजार साल पहले आर्मीनिया के विख्‍यात योद्धा मेसरोप माशतोत्‍स के दिमाग में यह ख्‍याल आया कि लिखित भाषा शस्‍त्रास्‍त्र से अधिक शक्तिशाली है और उसने आर्मीनी वर्णमाला की रचना की.

मैं मातेनादारान जा चुका हूँ, जहाँ प्राचीनतम पांडुलिपियाँ सुरक्षित रखी जा रही हैं.

वहाँ बहुत ही दुखी मन से मैं दागिस्‍तान के बारे में सोचता रहा जिसने किताबों और लिखित भाषा के बिना हजारों साल बिता दिए. समय की छलनी में से इतिहास छनता रहा और उसके जरा भी निशान बाकी नहीं रहे. केवल धुँधले और ऐसे आख्‍यान और गीत ही, जो हमेशा प्रामाणिक नहीं होते थे, एक व्‍यक्ति के मुँह से दूसरे व्‍यक्ति के मुँह तक, एक हृदय से दूसरे हृदय तक जाते हुए हमारे पास पहुँचते रहे.

है आसान कथा-किस्‍सों में
विस्‍मृत को स्‍मृत रख पाना,
माँ से सुना कभी जो किस्‍सा
यहाँ चाहता दुहराना.

किसी गाँव में किसी किसी वीर ने
ऊँचा नाम कमाया जब,
बडे खान ने, शक्तिमान ने
पास उसे बुलवाया तब.

नाम सलीम, हमारा हीरो
बडे़ महल में जब आया,
एक-एक कर सब दरवाजों
को उसने खुलते पाया.

थे कालीन, झाड़ जगमग थे
और रुपहले फव्‍वारे,
धनी खान ने माल-खजाने
खोल दिए अपने सारे.

जो कुछ देखा यहाँ वीर ने
मुश्किल वह सब बतलाना,
जो कुछ भी है इस दुनिया में
संभव यहाँ देख पाना.

कहा खान ने - 'सुनो सूरमा,
जो भी चाहो, तुम ले लो,
दिल-दिमाग को जो रुच जाए
दे दूँगा मैं वह तुमको.

'यहाँ सभी चीजें बढ़िया हैं
किंतु याद इतना रखना,
हो अफसोस न तुम्‍हें बाद में
मत उतावली तुम करना.'

उत्‍तर दिया वीर ने उसको -
'दो तलवार, मुझे खंजर,
घोड़ा तेज मुझे तुम दे दो
करूँ सवारी मैं जिस पर.

'हीरे-मोती, माल-खजाने
किंतु न मैं ये सब चाहूँ
है तलवार, अगर घोड़ा भी
यह सब तो मैं खुद पाऊँ.'

अरे, पूर्वज मेरे तुमने
कैसी कर डाली गलती,
ली तलवार, लिया घोड़ा भी
किंतु भुला क्‍यों पुस्‍तक दी?

क्‍यों न कहो, थैले में अपने
कागज, पेंसिल भी रक्‍खी?
भूल गए किसलिए लेखनी?
भूल बड़ी यह तुमने की.

बेशक मन था निर्मल तेरा
किंतु अक्‍ल की रही कमी,
पुस्‍तक खंजर से बढ़कर है
बात न दिल में यही जमी.

भाग्‍य सौंप लोहे को अपना
जान नहीं हम यह पाए,
खंजर, घोड़ों से वह बढ़कर
पुस्‍तक जो कुछ सिखलाए.

सूझ-बूझ के राज छिपे हैं
सुंदरता के भी उसमें,
हम सदियों तक पिछड़ गए हैं
होकर खंजर के वश में.

यह परिणाम भूल का तेरी
छात्र देर से ज्‍यों आए,
पाठ कभी का शुरू हुआ यदि
वह तो पीछे रह जाए.

पर्वतमाला के पीछे, हमारे बिल्‍कुल निकट ही जार्जिया है. अनेक शताब्दियाँ पहले शोता रूस्‍तावेली ने अपना अमर महाकाव्‍य 'बाघ की खाल में सूरमा.' रचकर जार्जियाई लोगों को भेंट कर दिया. जार्जियाई लोग बहुत अरसे तक महाकवि की कब्र की खोज करते रहे, उन्‍होंने पूरब के सभी देश छान मारे. 'महाकवि की कब्र तो कहीं नहीं है, लेकिन उनके जीवित हृदय की धड़कन हर जगह सुनी जा सकती है,' एक औरत ने कहा.

मानव जाति काकेशिया की चट्टान से बँधे हुए प्रोमेथ्‍यू की दास्‍तान पढ़ती है.

अरब लोग हजारों सालों से कविताएँ पढ़-पढ़कर सिर धुनते हैं.

हजारों साल पहले हिंदुओं ने ताड़ के पत्‍तों पर अपने सत्‍यों और भ्रांतियों को लिखा. मैंने काँपते हाथों से इन पत्‍तों को छुआ और अपनी आँखों से लगाया.

तीन पंक्तियोंवाली जापानी कविता वास्‍तव में ही बड़ी लालित्‍यपूर्ण है! कितनी प्राचीन है चीन की भाषा जिसमें हर अक्षर, अधिक सही तौर पर हर चिह्न के पीछे एक पूरी धारणा छिपी हुई है!

अगर ईरान के शाह आग और तलवार के बजाय फिरदोसी की बुद्धिमत्‍ता, हफीज की मुहब्‍बत, शेख सादी का साहस और अबीसिन के विचार लेकर दागिस्‍तान आते तो उन्‍हें यहाँ से सिर पर पाँव रखकर न भागना पड़ता.

नीशापुर में मैं उमर खय्याम की कब्र पर गया. वहाँ मैंने सोचा - 'मेरे दोस्‍त ख्‍य्याम! ईरान के शाह की जगह अगर तुम हमारे यहाँ आए होते तो पहाड़ी जनगण ने कितनी खुशी से तुम्‍हारा स्‍वागत किया होता!'

बीजगणित का जन्‍म हो चुका था और हम गिनती करना भी नहीं जानते थे. भव्‍य महाकाव्‍य गूँजते थे और हम 'माँ' शब्‍द भी नहीं लिख सकते थे.

रूसी सैनिकों से ही हमारा पहले वास्‍ता पड़ा और रूसी कवियों से हमारा बाद में परिचय हुआ.

अगर पहाड़ी लोगों ने पुश्किन और लेर्मोंतेव को पढ़ा होता तो शायद हमारा इतिहास दूसरा ही मार्ग अपना लेता.

जब किसी पहाड़ी आदमी को लेव तोलस्‍तोय की 'हाजी-मुरात' पुस्‍तक पढ़कर सुनाई गई तो उसने कहा - 'ऐसी बुद्धिमत्‍तापूर्ण पुस्‍तक तो मानव नहीं, भगवान ही लिख सकता था.'

पुस्‍तक के लिए जो कुछ चाहिए, हमारे यहाँ वह सब कुछ था. दहकता हुआ प्‍यार, वीर-नायक, दुखद घटनाएँ, कठोर प्रकृति, केवल स्‍वयं पुस्‍तक ही नहीं थी.

रहा वास्‍ता कितने ही दुख-दर्दों से इस धरती का
और ईर्ष्‍या से जलते मर्दों ने ले अपने खंजर,
कई पहाड़ी देज्‍देमोना को हाथों से कत्‍ल किया
निर्दयता से चला दिए थे खंजर उनकी छाती पर.

सदियों के लंबे अरसे में, क्‍या-क्‍या यहाँ नहीं बीता
उच्‍च पर्वतों की इस धरती, मानो दुनिया की छत पर,
यहाँ जूलियट औ, ओफलियाँ, हुए अनेकों ही हेमलेट
हुआ सभी कुछ किंतु यहाँ पर, पैदा हुआ न शेक्‍सपियर.

यहाँ मधुर संगीत गूँजता, करती हैं नदियाँ कलकल,
यहाँ तराने पक्षी गाएँ, निर्झर झरते हैं झरझर,
किंतु बाख तो फिर भी कोई, इस धरती पर नहीं हुआ
और न गूँजा यहाँ बिथोवन की रचनाओं का ही स्‍वर.

किसी जूलियट के जीवन का दुखद अंत जब होता था
कौन यहाँ करते थे चर्चा, उसका हाल बताते थे?
वही लोग जो उसे मारकर, बदला अपना लेते थे
और न कवि तो उसके दुख की, गौरव-गाथा पाते थे.

कुमुख गाँव के करीब तैमूर के गिरोहों के साथ भयानक लड़ाई के बाद पहाड़ी लोग जब जीत का माल लूट रहे थे तो एक मुर्दा सैनिक की जेब से उन्‍हें पुस्‍तक मिल गई. हमारे सैनिकों ने उसके पृष्‍ठ उलटे-पलटे, अक्षरों पर झुककर उन्‍हें बहुत गौर से देखा. लेकिन उनमें एक भी ऐसा नहीं था जो उन्‍हें पढ़ सकता हो. तब पहाड़ियों ने उसे जला देना चाहा, उसे फाड़कर उसके पृष्‍ठों को हवा में उड़ा देना चाहा. लेकिन समझदार और बहादुर पार्तू-पातीमात ने आगे बढ़कर कहा -

'दुश्‍मन से मिले हथियारों के साथ इसे भी सँभालकर रखिए.'

'हमें इसकी क्‍या जरूरत है? हममें से तो कोई भी इसे पढ़ नहीं सकता.'

'अगर हम नहीं पढ़ सकते तो हमारे बेटे-पोते इसे पढ़ेंगे. आखिर हम तो यह नहीं जानते कि इसमें क्‍या लिखा हुआ है. हो सकता है कि इसी में हमारा भाग्‍य छिपा हो.'

अरबों के साथ सुराकात तानुसीन्‍स्‍की की लड़ाई के वक्‍त एक अरब कैदी ने पहाड़ी लोगों को अपना घोड़ा, हथियार और ढाल भी दे दी, लेकिन किताब को छाती के साथ चिपकाकर छिपा लिया, उसे नहीं देना चाहा. सुराकात ने घोड़ा और हथियार कैदी को लौटा दिए, मगर किताब छीन लेने का हुक्‍म दिया. उसने कहा -

'घोड़ों और तलवारों की तो खुद हमारे पास भी कुछ कमी नहीं है, मगर किताब एक भी नहीं है. तुम अरबों के पास तो अनेक किताबें हैं. तुम्‍हें इस एक को देते हुए क्‍यों अफसोस हो रहा है?'

सैनिकों ने हैरान होकर अपने सेनापति से पूछा -

'हमें इस किताब का क्‍या करना है? हम तो न केवल इसे पढ़ना ही नहीं जानते, बल्कि हमें तो इसे ढंग से हाथ में लेना भी नहीं आता. घोड़े और हथियारों के बजाय इसे लेना क्‍या समझदारी की बात है?'

'वह वक्‍त आएगा, जब इसे पढ़ा जाएगा. वह वक्‍त आएगा, जब यह पहाड़ी लोगों के लिए चेर्केस्‍का, समूरी टोपी, घोड़े और खंजर की जगह ले लेगी.'

दागिस्‍तान पर हमला करनेवाले ईरान के शाह की जब खासी पतली हालत हो गई तो उसने अपना सोना-चाँदी और हीरे-मोती, जिन्‍हें हमेशा अपने साथ रखता था, जमीन में गाड़ दिए. इस गड्ढे के ऊपर शिला-खंड रखकर उस पर सूचना के अक्षर खोद दिए गए. साक्षियों को शाह ने मरवा डाला. लेकिन मुरताज-अली खान ने फिर भी इस गड्ढे को ढूँढ़ लिया और सोने-चाँदी और हीरे-मोतियों से भरे संदूक - वह सभी कुछ जो ईरान के शाह ने अब तक लूटा था - निकाल लिए. बीस खच्‍चरों पर शाह की यह सारी दौलत लादकर लाई गई. बाकी कीमती चीजों के अलावा फारसी की कुछ किताबें भी थीं. मुरताज-अली खान के पिता सुरहात ने, जिसके दोनों हाथ कटे हुए थे, यह सारा खजाना देखकर कहा -

'मेरे बेटे, बहुत बड़ा खजाना ढूँढ़ा है तुमने. इसे सैनिकों में बाँट दो, अगर चाहो तो बेच दो. यह तो हर हालत में खत्‍म हो जाएगा. लेकिन सौ साल बाद भी पहाड़ी लोगों को इन किताबों में छिपे हुए मोती मिल जाएँगे. तुम इन्‍हें नहीं दो. ये सभी कीमती चीजों से ज्‍यादा मूल्‍यवान हैं.'

इमाम शामिल का मुहम्‍मद ताहिर अल-कारखी नाम का सेक्रेटरी था. शामिल उसे कभी भी खतरनाक जगह पर नहीं जाने देता था. मुहम्‍मद ताहिर को इस कारण बहुत बुरा लगता था. एक दिन उसने कहा -

'इमाम, शायद तुम मुझपर भरोसा नहीं करते हो? मुझे जंग के मैदान में जाने दो.'

'अगर सब मर जाएँ तुम्‍हें तो तब भी जिंदा रहना चाहिए. तलवार हाथ में लेकर लड़ तो कोई भी सकता है, मगर इतिहास लिखने का काम हर कोई नहीं कर सकता. तुम हमारे संघर्ष की किताब लिखते रहो.'

मुहम्‍मद ताहिर अपनी किताब पूरी किए बिना ही इस दुनिया से कूच कर गया. लेकिन उसके बेटे ने पिता के अधूरे छोड़े गए काम को पूरा किया. इस पुस्‍तक का नाम है - 'कुछ लड़ाइयों में इमाम की तलवार की चमक.'

इमाम शामिल का बहुत बड़ा निजी पुस्‍तकालय था. पच्‍चीस सालों तक वह दसियों खच्‍चरों पर उसे जहाँ-तहाँ ले जाता रहा. उसके बिना तो उसे चैन ही नहीं मिलता था. बाद में, गुनीब पर्वत पर कैदी बनने के वक्‍त उसने अनुरोध किया कि उसकी तलवार और किताबें उसके पास ही रहने दी जाएँ. कालूगा में रहते हुए वह किताबें पाने के लिए लगातार मिन्‍नत करता रहा. वह कहा करता था - 'तलवार के कारण तो बहुत लड़ाइयाँ हारी गईं, लेकिन किताब के कारण एक भी नहीं.'

इमाम का बेटा जमालुद्दीन जब रूस से लौटा तो इमाम ने उसे पहाड़ी पोशाक पहनने को मजबूर किया, लेकिन उसकी किताबों को छुआ तक नहीं. जिन लोगों ने इमाम से यह कहा कि 'काफिरों की किताबें' नदी में फेंक दी जाएँ, उसने उन्‍हें यह जवाब दिया - 'इन किताबों ने हमारी धरती पर, हम पर गोलियाँ नहीं चलाईं. इन्‍होंने हमारे गाँव नहीं जलाए, लोगों को मौत के घाट नहीं उतारा. जो कोई किताब की बेइज्‍जती करेगा, वह उसकी बेइज्‍जती कर देगी.'

काश, अब हम यह जान सकते कि जमालुद्दीन पीटर्सबर्ग से कौन-सी किताबें अपने साथ लाया था?

अपनी लिखित भाषा न होने के कारण दागिस्‍तान के लोग परायी भाषाओं में कभी-कभार एकाध शब्‍द लिखते थे. ये पालनों, खंजरों, छत के तख्‍तों और कब्रों के पत्‍थरों पर लिखे जानेवाले आलेख होते थे जो अरबी, तुर्की, जार्जियाई और फारसी में लिखे जाते थे. इस तरह के आलेखों, बेल-बूटों की संख्‍या बहुत बड़ी है, इन सभी को जमा करना संभव नहीं. लेकिन अपनी भाषा में पढ़ने के लिए कुछ भी नहीं. अपना नाम तक न लिखना जाननेवाले पहाड़ी लोग तलवारों, घोड़ों और पर्वतों के रूप में इसे अभिव्‍यक्‍त करते थे.

कब्रों पर लिखे गए कुछ आलेखों का अनुवाद किया जा सकता है -

'यहाँ बुग्‍ब-बाई नाम की औरत दफन है जो अपनी मनपसंद उम्र तक जिंदा रही और दो सौ साल की होने पर मरी', 'यहाँ कूबा-अली दफन है जो अदजारखान के साथ हुई लड़ाई में तीन सौ साल की उम्र में मारा गया.'

बहुखंडीय इतिहास की जगह कुछ दयनीय अंश, बिखरे-बिखराए शब्‍द और वाक्‍य.

जब मैं साहित्‍य-संस्‍थान का विद्यार्थी था तो पके बालोंवाले दयालु सेर्गेई इवानोविच रादत्सिग हमें प्राचीन यूनानी साहित्‍य पढ़ाते थे. उन्‍हें प्राचीन साहित्‍य मुँहजबानी याद था, वह प्राचीन यूनानी भाषा में बड़े-बड़े खंड सुनाते थे, प्राचीन यूनानियों के दीवाने थे और उन्‍हें अपने मन पर पड़नेवाली उनकी छापों की चर्चा करना बहुत अच्‍छा लगता था. प्राचीन कवियों की कविताओं का वह ऐसे पाठ करते थे मानो स्‍वयं रचयिता कवि उनका पाठ सुन रहे हों, मानो पक्‍के मुसलमान की तरह डरते हों कि कहीं अचानक कुरान पढ़ते हुए कोई गलती न हो जाए. उनका ख्‍याल था कि वह हमें जो कुछ बताते हैं, हम बहुत पहले से और बड़ी अच्‍छी तरह जानते हैं. वह तो इस बात की कल्‍पना तक नहीं कर सकते थे कि कोई 'ओदिसी' या 'इलियाड' से अनजान हो सकता है. वह यही समझते थे कि जंग के मोरचे से अभी-अभी लौटनेवाले ये नौजवान चार साल पहले यानी जब लड़ाई में नहीं गए थे तो बस होमर, एसखील और एवरीपीड को ही पढ़ते रहते थे.

एक बार यह देखकर कि यूनानी साहित्‍य की हमारी जानकारी कितनी कम है, वह लगभग रो पड़े.

मैंने तो उन्‍हें खास तौर पर बहुत हैरान किया. दूसरे तो थोड़ा-बहुत जानते ही थे. जब उन्‍होंने मुझसे होमर के बारे में पूछा तो मैं मक्सिम गोर्की के ये शब्‍द याद करके कि उन्‍होंने सुलेमान स्‍ताल्‍स्‍की को बीसवीं सदी का होमर कहा था, उनके बारे में बताना शुरू कर दिया. बड़े दुख के साथ मेरी ओर देखकर प्रोफेसर ने मुझसे पूछा -

'तुम किस जगह बड़े हुए हो कि तुमने 'ओडिसी' भी नहीं पढ़ी?'

मैंने जवाब दिया कि मैं दागिस्‍तान में बड़ा हुआ हूँ, जहाँ किताब कुछ ही वक्‍त पहले प्रकट हुई है. अपने अपराध की थोड़ी सफाई देने के लिए मैंने अपने को असभ्‍य पहाड़िया बताया. तब प्रोफेसर ने वे शब्‍द कहे जिन्‍हें मैं कभी नहीं भूल सकूँगा -

'नौजवान, अगर तुमने 'ओडिसी' नहीं पढ़ी तो तुम असभ्‍य पहाड़ियों से भी गए-बीते हो. तुम तो निरे जंगली और बर्बर हो.'

अब मैं जब कभी यूनान और इटली जाता हूँ तो अपने प्रोफेसर, उनके शब्‍दों और प्राचीन साहित्‍य के प्रति उनके रवैये की मुझे अक्‍सर याद आती रहती है.

लेकिन अगर मैं रूसी भाषा भी बड़ी मुश्किल से बोल और लिख सकता था तो होमर, सोफोकल, अरस्‍तू और हेसिओड को कैसे जान सकता था? दुनिया में बहुत कुछ ऐसा था जो दागिस्‍तान की पहुँच के बाहर था, बहुत-से खजाने उसके लिए नहीं थे.

मैं इस बात का उल्‍लेख कर चुका हूँ कि हमारे गायक तातम मुरादोव का गाना सुनते हुए माक्‍साकोवा कैसे रोई थी. मुरादोव ने किसी भी तरह की तालीम हासिल नहीं की थी और उस वक्‍त उसकी उम्र साठ के करीब थी. सभी ने यह सोचा था कि गायक की आवाज ने माक्‍साकोवा के दिल को छू लिया है, लेकिन उसने कहा था -

'में तो अफसोस के कारण रो रही हूँ. कैसी गजब की आवाज है! अगर ठीक वक्‍त पर इस गायक को शिक्षक मिल जाते तो इसने अपने गाने से दुनिया को हैरत में डाल दिया होता. लेकिन अब कुछ भी नहीं हो सकता.'

दागिस्‍तान के भाग्‍य के बारे में सोचते हुए मुझे उक्‍त शब्‍द बहुत बार याद आते हैं. वे केवल तातम के बारे में ही नहीं कहे गए हैं. क्‍या हमारे अनेक गायक, योद्धा, चित्रकार, पहलवान अपने गुणों, अपनी प्रतिभा का परिचय दिए बिना ही कब्रों में नही चले गए हैं? उनके नाम अज्ञात ही रए गए. शायद हमारे भी अपने शाल्‍यपिन, अपने पोद्दूब्‍नी थे. अगर ओसमान अब्‍दुर्रहमानोव को, हमारे हरकुलीस को ताकत के साथ उस कुश्‍ती की कला की शिक्षा और परंपरागता भी मिल जाती तो शायद कोई भी उससे जीत न सकता. लेकिन उसे शिक्षा देनेवाला कोई नहीं था. हमारे यहाँ संगीत-महाविद्यालय, थियेटर, इन्‍स्‍टीट्यूट, अकादमियाँ, यहाँ तक कि स्‍कूल भी नहीं थे.

शिला-लेख बीती सदियों की नहीं बताएँ गाथाएँ
उनसे वंचित, किंतु हमारी राह नहीं रुक जाएगी,
तलवारों से अरे, बुजुर्गों ने जो किस्से लिखे कभी
उसे लेखनी ही अब मेरी, आगे और बढ़ाएगी.

पहाड़ी लोग पेंसिल हाथ में लेने, उससे अक्षर लिखने का ढंग नहीं जानते थे. उन शत्रुओं को, जो उनसे घुटने टेकने को कहते थे, वे उन्‍हें ठेंगा ही दिखाते थे. या फिर कुछ और साफ ढंग से इसे चित्रित करके दुश्‍मन के पास भेज देते थे.

दागिस्‍तान के बारे में कहा जाता था - 'यह देश पत्‍थर के संदूक में एक ऐसे गीत की तरह पड़ा हुआ है जिसको न लिखित रूप दिया गया है और न गाया गया है. कौन इसे निकालेगा, कौन इसके बारे में गाएगा और लिखेगा?'

अक्षर, शब्‍द, पुस्‍तकें - यही उस ताले की चाबी हैं जो उस संदूक पर लगा हुआ है. दागिस्‍तान के भारी और सदियों पुराने तालों की चाबियाँ किनके हाथों में हैं?

विभिन्‍न लोग इन तालों के पास आए और कभी-कभी तो उन्‍होंने संदूक के भीतर झाँकने के लिए उसका ढक्‍कन भी ऊपर उठाया. दागिस्‍तान के लोग जब खुद तो कलम हाथ में लेना भी नहीं जानते थे, उस वक्‍त भी अनेक मेहमानों, यात्रियों और विद्वानों-अनुसंधानकों ने दूसरी भाषाओं - अरबी, फारसी, तुर्की, यूनानी, जार्जियाई, आर्मीनी, फ्रांसीसी और रूसी में दागिस्‍तान के बारे में लिखा था...

दागिस्‍तान, मैं पुराने पुस्‍तकालयों में तुम्‍हारा नाम खोजता हूँ और उसे विभिन्‍न भाषाओं में लिखा पाता हूँ. देर्बेंत, कुबाची, चिरके और खूँजह का उल्‍लेख मिलता है. यात्रियों को धन्‍यवाद. वे तुम्‍हारी पूरी गहराई और जटिलता की तह तक नहीं जा सके, फिर भी उन्‍हीं ने सबसे पहले तुम्‍हारे नाम को हमारे पर्वतों की सीमाओं से बाहर पहुँचाया.

इसके बाद पुश्किन और लेर्मोंतोव ने अपने शब्‍द कहे -

तब जलती दोपहरी में मैं दागिस्‍तानी घाटी में
पड़ा हुआ था निश्‍चल, सीने में अपने गोली लेकर...

अद्भुत पंक्तियाँ हैं ये! और बेस्‍तूजेव-मारलीन्‍स्‍की ने अपनी 'अम्‍मालात-बेक' रचना लिखी. देर्बेंत... कब्रिस्‍तान में अभी तक मारलीन्‍स्‍की द्वारा उसकी मंगेतर की कब्र पर लगाया गया पत्‍थर कायम है.

अलेक्‍सांद्र द्यूमा दागिस्‍तान में आए थे. पोलेजायेव ने अपनी लंबी कविताएँ 'एरपेली' और 'चीर-यूर्त' रचीं. हर किसी ने तुम्‍हारे बारे में भिन्‍न-भिन्‍न ढंग से लिखा है, लेकिन किसी ने भी तुम्‍हें इतनी गहराई में जाकर और इतनी अच्‍छी तरह से नहीं समझा जितनी अच्‍छी तरह से जवान लेर्मोंतोव और बुजुर्ग तोलस्‍तोय ने. तुम्‍हारे इन गायकों के सामने मैं अपना पके बालोंवाला सिर झुकाता हूँ, ये किताबें मैं वैसे ही पढ़ता हूँ जैसे मुसलमान कुरान को.

बेटे के नामकरण-संस्‍कार का दिन-बड़ी खुशी का दिन होता है. ऐसा दिन तो वही दिन होना चाहिए, जब दागिस्‍तान के बेटों ने पहली बार अपनी मातृभाषाओं में उसके बारे में लिखा. मुझे याद है कि जब मेरी पहली अध्‍यापिका वेरा वसील्‍येव्‍ना ने मुझे ब्‍लैक बोर्ड के पास बुलाकर तुम्‍हारा नाम लिखने को कहा था तो मैंने कौन-सी गलती की थी. मैंने '' को बड़े अक्षर के रूप में लिखे बिना दागिस्‍तान लिख दिया था. वेरा वसील्‍येव्‍ना ने मुझे समझाया कि दागिस्‍तान एक व्‍यक्तिवाचक नाम है और इसलिए इसका पहला अक्षर बड़ा होना चाहिए. तब मैंने बड़ा '' लिखकर उसके आगे दागिस्‍तान यानी 'ददागिस्‍तान' लिख दिया. मुझे लगा कि बड़ा और छोटा, दोनों '' लिखने चाहिए. ऐसा करना भी गलत था. इसके बाद तीसरी बार मैंने सही लिखा.

क्‍या तुम्‍हें भी इसी तरह से तुम्‍हारा नाम लिखना नहीं सिखाया गया, दागिस्‍तान? क्‍या तुम्‍हें भी इसी तरह से अपने बारे में बताना नहीं सिखाया गया है? वर्णमाला चुनी. तुमने अरबी, लातीनी, रूसी अक्षरों में लिखा. बहुत-सी गलतियाँ हुईं. क्‍योंकि जो कुछ बड़े अक्षर से लिखा जाना चाहिए था, उसे छोटे अक्षर से लिखा गया. क्‍योंकि जो कुछ छोटे अक्षर से लिखा जाना चाहिए था, वह बड़े अक्षर से लिखा गया. केवल तीसरी बार ही तुम सही ढंग से लिखना सीख पाए, मेरे दागिस्‍तान. दागिस्‍तान की कुछ पहली पुस्‍तकों, पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के नाम प्रस्‍तुत हैं - 'भोर का तारा', 'नई किरण', 'लाल पहाड़िया', 'पहाड़ी हिरन', 'पहाड़ी कहावतें', 'कुमिक लोक-कथाएँ', 'लाक-जाति की धुनें', 'दारगीन दास्‍तानें', 'लेज्‍गीन कविताएँ', सोवियत दागिस्‍तान'. ये सभी दागिस्‍तान की मातृभाषाओं में हैं और केवल नाम ही नहीं, बल्कि पंख हैं.

1921 में दागिस्‍तान के प्रतिनिधिमंडल के साथ बातचीत करने के बाद लेनिन ने हमारे पहाड़ी प्रदेश को तीन सर्वाधिक अनिवार्य वस्‍तुएँ भेजीं - अनाज, कपड़ा और छापेखाने के टाइप. घोड़ा और खंजर दागिस्‍तान के पास थे. लेनिन ने अनाज के साथ उसे पुस्‍तक दी. अक्‍तूबर क्रांति ने दागिस्‍तानी शिशु के पालने की चिंता की. दागिस्‍तान ने सागर, खुद अपने को देखा, अपने अतीत और भविष्‍य को देखा और उसने अपने बारे में खुद लिखना शुरू किया.

सुलेमान स्‍ताल्‍स्‍की ने मक्सिम गोर्की से कहा - 'हम दोनों बूढ़े हो चुके हैं. अपनी जिंदगी जी चुके हैं, दुनिया देख चुके हैं. हम दोनों की किताबें हैं. लेकिन तुम कागज पर लिखते हो, तुम पढ़े-लिखे हो. मैं गाता हूँ. कारण कि मुझे लिखना नहीं आता. हम रूस और दागिस्‍तान के साकार रूप हैं. रूस पढ़ा-लिखा है. दागिस्‍तान में अधिकांश लोग अभी तक अपना नाम तक लिखना नहीं जानते. वे हस्‍ताक्षर करने के बजाय अँगूठा लगाते हैं. क्‍या तुम ऐसे पढ़े-लिखे लेखकों का दल यहाँ नहीं भेज सकते ताकि वे सारे सोवियत देश, सारी दुनिया को हम दागिस्‍तानियों के बारे में बता सकें?'

सुलेमान स्‍ताल्‍स्‍की और गोर्की की बातचीत का एफ्फंदी कापीयेव अनुवाद कर रहा था. गोर्की ने सुलेमान का अनुरोध पूरा करने का वचन दिया, किंतु कापीयेव की ओर इशारा करते हुए यह भी कहा कि अब दागिस्‍तान में पढ़े-लिखे और प्रतिभाशाली युवजन की पीढ़ी तैयार हो गई है. और यह कहीं ज्‍यादा अच्‍छा होगा कि इस जनतंत्र की सभी भाषाओं में अपनी धरती के बारे में खुद दागिस्‍तानी ही लिखें. कारण कि, जैसा कि आपके यहाँ कहा जाता हे, 'घर की हालत के के बारे में उसकी दीवारें ही सबसे ज्‍यादा अच्‍छी तरह जानती हैं.'

गोर्की ने जिन युवजन का उल्‍लेख किया था, वे अब बड़े और बूढ़े भी हो चुके हैं. वे दागिस्‍तान के बारे में पुस्‍तकें लिख चुके हैं, और भी लिखेंगे. पहले वक्‍तों में पिता अपने बेटों के लिए विरासत में तलवार और पंदूरा छोड़ते थे. अब-लेखनी और पुस्‍तक. दागिस्‍तान में ऐसा दिन नहीं होता, जब किसी के यहाँ बेटे का जन्‍म न होता हो. यहाँ ऐसा दिन भी नहीं होता जब कोई नई पुस्‍तक प्रकाशित न हो. हर कोई अपने ही दागिस्‍तान के बारे में लिखता है. पचास से अधिक सालों तक मेरे पिता जी लिखते रहे. पूरी जिंदगी ही काफी नहीं रही. अब मैं लिखता हूँ. लेकिन मैं भी वह सब नहीं लिख पाऊँगा जो लिखना चाहता हूँ. इसलिए मैं बच्‍चों के सिरहाने खंजर के बजाय लेखनी और कोरी कापी रखता हूँ. मेरे पिता जी का और मेरा एक ही दागिस्‍तान है. लेकिन हमारी लेखनियों की भाषाओं में वह कितना भिन्‍न है. हमारी अपनी-अपनी लिखावट, अपने-अपने अक्षर, अपना-अपना ढंग और अपना तराना है. अपने लंबे रास्‍ते पर बोझ ढोनेवालों को बदलते हुए यह बैलगाड़ी इसी तरह से चलती जा रही है.

पिता जी कहा करते थे - 'वही लिखो जो जानते हो और लिख सकते हो. और जो नहीं जानते, उसे दूसरों की किताबों में पढ़ो.'

किताब

प्‍यार करो तुम तो पुस्‍तक को जिसके पृष्‍ठ उदार बड़े
इंतजार है उसको तेरा, कभी न जो धोखा देती,
चाहे तुम हो धनी खान या चाहे हो निर्धन, कंगले
हर हालत में वफादार वह, नजर न कभी फेर लेती.

बड़े जतन से, बड़ी लगन से, पुस्‍तक के पन्‍ने पलटो
उसकी तो प्रत्‍येक पंक्ति में सूझ-बूझ का शब्‍द भरा,
ज्ञान-पिपासा तीव्र रहे चिर, बेटे, तुम इतना जानो
पाओगे संतोष उसी से, ज्ञान उसी में जो बिखरा.

यह तो है वह अस्‍त्र, हाथ से नहीं गँवाना तुम जिसको
वार न बेशक करो, रहेगा, साथी यह फिर भी सच्‍चा,
बुरा न मानेगा यदि फेंको, इससे यदि तुम मुँह मोड़ो
इतना बढ़िया मीत चही है, दोस्‍त यही इतना अच्‍छा.

करो दोस्‍ती सदा ज्ञान से, उसके घर में सब कुछ है
उसके फल हैं मीठे-मीठे, हरे-भरे उसके उपवन,
स्‍वागत वहाँ सदा ही होगा, तुम वांछित मेहमान वहाँ
जाओ, वहाँ बटोरो तुम फल, जितने चहो, आजीवन.

तुम जीवन, अपने सपनों का, पुस्‍तक से नाता जोड़ो
और समझ लो, अनजाने ही, कवि अंतर में छाएगा,
जो मन में, कह दो कविता से, उसकी ही मुस्‍कान मधुर
देगी सब प्रश्‍नों के उत्‍तर, हृदय सांत्वना पाएगा.

जब जवान कवि अपनी कविताएँ, लेकर पिता जी के पास आते तो सबसे पहले तो वह उनकी लिखावट की तरफ ध्‍यान देते. क्‍योंकि 'जैसी हलरेखा, वैसा
ही खेत का मालिक.' इसके बाद वह गलतियाँ ठीक करते, विरामचिह्न लगाते. अफसोस से अपना सिर हिलाते हुए वह मानो कहते - सही ढंग से लिखना सीखो. कुछ जवान लोग दबी जबान से यह ख्‍याल जाहिर करते - '20 वीं शताब्‍दी के होमर' अनपढ़ थे. 'मुझे तो यह मालूम नहीं था!' पिता जी जवान 'होमर' को जवाब देते. दागिस्‍तान में अभी भी ऐसे अनेक 'होमर' हैं. कविता में व्‍याकरण की गलती से भी पिता जी को बड़ी झुँझलाहट होती थी. जब पिता जी की एक कविता छापे की अनेक भूलों के साथ समाचारपत्र में छपी थी तो उन्‍होंने यह कविता लिखी थी -

अचानक गीत पर मेरे
मुसीबत आज आई है,
उसे अखबार में भेजा
छपाने को, दुहाई है!

बिगाड़ा इस तरह उसको
बुरा यों हाल कर डाला,
कि जैसे बेंत, लाठी से
कहीं उसका पड़ा पाला.

नशे में धुत लोगों ने
दबोचा हो उसे जैसे,
पिटाई खूब कसकर की
नजर आता है कुछ ऐसे.

कि शायद राह में उस पर
पड़े मुक्‍के, पड़े घूँसे,
न जाने किस तरह निकला
बचाकर जान दुश्‍मन से?

चौपाई को पकड़कर
इस तरह गर्दन मरोड़ी हे,
हुआ है अर्थ ही गायब
कि ऐसे टाँग तोड़ी है.

कि दोहों पर पड़े कोड़े
नजर कुछ इस तरह आता,
भरे आहें, कराहें वे
न उनको चैन मिल पाता.

बिचारी खोपड़ी घायल
न गिनना घाव संभव है,
अजब यह बात है सचमुच
भयानक खेल यह सब है.

न अँतड़ियाँ दिखाई दें
नजर है गीत की धुँधली,
पियक्‍कड़ की सिपाही ने
कि जैसे हो पिटाई की.

अगर हर अंक में हों
गलतियाँ इस ढंग की दसियों,
तुम्‍हारी ख्‍याति फैलेगी
अरे हीरो, दूर कोसों.

करें आलोचना अपनी
सुधरती भूल है त‍ब ही,
कि यह आलोचना छापो
यही अनुरोध है अब भी.

मेरे पिता जी... उन्‍हें जाननेवाला हर व्‍यक्ति शायद अपने ढंग से उनकी कल्‍पना करता था.

जाहिर है कि वह जमीन जोतते थे, घास काटते थे, बैल-गाड़ी पर घास लादते थे, घोड़े को घास खिलाते थे और ऊस पर सवारी करते थे. लेकिन मैं उन्‍हें हाथ में किताब लिए हुए ही देखता हूँ. वह किताब को हमेशा इस तरह से हाथ में लिए रहते थे मानो वह हाथों से निकलकर किसी भी क्षण उड़ सकती हो. मेहमानों को बहुत चाहते हुए भी वह उवस वक्त बेचैनी और घबराहट अनुभव करते थे, जब कोई अचानक आकर उनके अध्‍ययन में बाधा डाल देता था, मानो कोई उनकी महत्‍वपूर्ण प्रार्थना को भंग कर देता हो. पिता जी जब कुछ पढ़ते होते तो माँ दबे पाँव चलतीं, होंठों पर लगातार उँगली रखे हुए सबको चुप रहने का संकेत करतीं और हमें फुसफुसाकर बात करने को विवश करतीं -

'शोर नहीं करो, तुम्‍हारे पिता जी काम कर रहे हैं.'

वह ठीक ही समझती थीं कि लेखक के लिए किताबें पढ़ना - यह उसका काम ही है.

खुद वह कभी-कभी हिम्‍मत बटोरकर यह जानने के लिए उनके कमरे में चली जाती थीं कि उन्‍हें किसी चीज की जरूरत तो नहीं, उनकी दवात में स्‍याही तो खत्‍म नहीं हो रही. पिता जी की दवात पर माँ कड़ी नजर रखती थीं और उसमें कभी भी स्‍याही नहीं सूखने देती थीं.

पिता जी के जीवन में अगर खुशी के दो दिन भी आए तो उन्‍हें ये किताबों की बदौलत ही नसीब हुए थे.

पिता जी के जीवन में अगर गम के दो दिन भी आए थे तो ये भी उन्‍हें किताबों ने ही दिए.

उन किताबों ने, जिन्‍हें वह पढ़ते थे और जिन्‍हें वह लिखते थे.

लोग उनसे जो कुछ भी माँगते, वह उन्‍हें उसे देने से कभी इनकार नहीं कर सकते थे. किसी चीज के अपने पास होते हुए उससे इनकार करने को पिता जी सबसे बड़ा झूठ और सबसे बड़ा पाप मानते थे. जब कोई उनसे उनकी कोई प्‍यारी पुस्‍तक माँगता था, तब तो उनकी हालत सचमुच दयनीय हो जाती थी. पुस्‍तक दे दी गई थी, वह पराये हाथों में थी, लेकिन पिता जी के हाथ अभी भी उसकी तरफ फैले हुए थे.

जब पुस्‍तक माँगकर ले जानेवाला व्‍यक्ति बहुत देर तक उसे नहीं लौटाता था तो पिता जी उसे लिखते थे - 'मैं अपने उस दोस्‍त के लिए बहुत उदास हो रहा हूँ जिसे तुम पिछली बार अपने साथ ले गए थे. क्‍या तुम उसे लौटाने की नहीं सोच रहे हो?'

मेरे पिता जी सात बहनों के एकमात्र भाई थे (परिवार में एकमात्र पुरुष) और ये सभी छोटी उम्र में ही यतीम हो गए थे. पिता जी ने अपना जन्‍म-गाँव भी जल्‍द ही छोड़ दिया था. यतीमों की सरपरस्‍ती करनेवाले चाचा ने यह कहकर उन्‍हें दूसरे गाँव के मदरसे में पढ़ने भेज दिया कि बड़े गाँव में अक्ल भी बड़ी होती है. तब से पिता जी कंधे पर खु़रजी रखे या झोला लटकाए एक गाँव से दूसरी गाँव में जाते रहे - उनके एक थैले में किताबें होती थीं और दूसरे में भुना हुआ आटा. कहना चाहिए कि वह धनी होकर वहाँ से लौटे. गाँव-गाँव भटकने के सालों में उनका ज्ञान बहुत समृद्ध हो गया. गाँव-पंचायत में उस वक्त उनसे कहा गया कि अगर तुम अपने ज्ञान और प्रतिभा को एक बैलगाड़ी में जोत दोगे तो बहुत लंबी यात्रा करोगे.

पंचायत की भविष्‍यवाणी ठीक निकली. पिता जी का नाम प्रसिद्ध हो गया. उनकी बहुत-सी कविताएँ तो लोकोक्तियाँ बन गईं.

पिता जी ने बड़ों और बच्‍चों की लिए, जो इस दुनिया में आते और इस दुनिया से जाते है, उन सभी के लिए बहुत कुछ लिखा. उन्‍होंने कविताएँ, खंड-काव्‍य, नाटक, गल्‍पें और कथाएँ लिखीं. उनकी लिखावट सीधी और अच्‍छी थी. उनकी भाषा भी ऐसी ही थी. हमजात की अच्‍छी लिखावट के कारण ही उनकी जवानी के दिनों में उनसे महत्‍वपूर्ण दस्‍तावेजों - निर्णयों और जनता के नाम अपीलों - की नकल करने का अनुरोध किया जाता था. वह विभिन्‍न लिपियों - अरबी, लातीनी और रूसी - का उपयोग करते थे. वह दाएँ से बाएँ और बाएँ से दाएँ लिखते थे.

उनसे यह पूछा जाता -

'बाएँ से दाएँ क्‍यों लिखते हो?'

'क्‍योंकि बाईं ओर दिल है, प्रेरणा है. हम जिस चीज को भी बहुत ज्यादा प्‍यार करते हैं, उसे अपनी छाती के बाईं ओर चिपका लेते हैं.'

'दाएँ से बाएँ क्‍यों लिखते हो?'

'क्‍योंकि आदमी में दाईं ओर ताकत होती है, दायाँ हाथ है. हम दाईं आँख से ही निशाना साधते हैं.

जाहिर है कि ये शब्‍द मजाक से कहे गए थे, किंतु विभिन्‍न लिपियाँ सीखना कुछ मजाक नहीं था. हाँ, यह सही है कि कविताएँ तो वह लगभग सदा ही अपनी मातृभाषा यानी अवार भाषा में लिखते थे.

पिता जी ने कुछ कविताएँ अरबी में भी रचीं. मुख्‍यतः अंतरंग कविताएँ. परिवार का कोई भी सदस्‍य उन्‍हें नहीं पढ़ सकता था. किंतु ऐसी कविताएँ बहुत कम हैं. हमजात तो सिद्धांत के रूप में ही ऐसी कविताओं के विरोधी थे. वह कहा करते थे -

'कविताएँ ऐसी नहीं होनी चाहिए कि माँ, बेटी या बहन उसे न पढ़ सके. मुझे वे फिल्‍में बिलकुल पसंद नहीं हैं जिन्‍हें सोलह साल तक के बच्‍चों को देखने की इजाजत न हो.'

पिता जी अक्‍सर अरबी लिपि का उपयोग करते थे. उन्‍हें उसके अक्षर, उनकी बनावट बहुत पसंद थी, उन्‍हें उनमें सुंदरता दिखाई देती थी. घसीटवाली और भद्दी लिखावट तो उन्‍हें फूटी आँखों नहीं सुहाती थी. एक बार उन्‍हें अपने एक पुराने साथी का अरबी में लापरवाही से लिखा हुआ खत मिला और उन्‍होंने एक कविता में उसका इस प्रकार मजाक उड़ाया -

एक तुम्‍हारा अक्षर ऐसे, जैसे फटी हुई खंजड़ी
बिंदु बनाया ऐसे, जैसे भारी, गोल-गोल पत्‍थर
छत गिर जाए ज्‍यों छप्‍पर की, लगे दूसरा यों अक्षर,
नजर आ रहे केवल खंभे, हैं अवशेष टिके जिन पर.
इस बदकिस्‍मत अक्षर पर तो, शिला-खंड मानो रक्‍खा
कैसे इसे दबाया तुमने, कैसे ऐसा गजब किया?
चौथे अक्षर की भौंहों तक, टोपी की नीचे खींचा
पूरा-पूरा पृष्‍ठ पंक्ति में, तुमने ही मानो भींचा.
शायद नहीं कलम से, बिल्‍ली के पंजे से लिखते हो?
हर अक्षर है पेड़ की झाड़ी, बिखरी जिसकी शाखाएँ
जंगल-सा हर पृष्‍ठ कि जिसमें प्रबल बवंडर आ जाएँ
जिसमें चारों ओर कुल्‍हाड़े, जोर-जोर से चल जाएँ,
सीखा कहाँ इस तरह लिखना, समझ न हम तो यह पाएँ?

इस कविता ने अपने वक्त में बहुत-से लोगों को नाराज किया. कुछ इसलिए नाराज हो गए कि उन्‍होंने इस कविता को ठीक ढंग से नहीं समझा था और दूसरे इस कारण कि इसे बहुत ही अच्‍छी तरह समझ गए थे. कुछ लोगों ने ऐसा माना कि हमजात भद्दे ढंग से लिखे गए अरबी के अक्षरों का नहीं, बल्कि अरबी लिपि का मजाक उड़ाते हैं.

लेकिन पिता जी के दिमाग में पूरी लिपि की आलोचना करने का तो ख्‍याल तक नहीं आया था. उन्‍होंने तो उन पर चोट की थी जो अपनी लापरवाही के कारण इस लिपि को बिगाड़ते थे, इसका इस्‍तेमाल करना नहीं जानते थे. पिता जी ने कभी किसी लिपि की बुराई नहीं की थी. जो लोग किसी भी लिपि को बिगाड़ते थे, वह उनको तिरस्‍कार की नजर से देखते थे.

'यह सही है कि अरबों ने दागिस्‍तान पर हमला किया था,' पिता जी कहा करते थे, 'लेकिन इसके लिए अरबी लिपि और अरबी भाषा की किताबों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.'

दोपहर के भोजन के बाद गाँव के लोग हमारे घर की छत पर जमा हो जाते थे. पिता जी उन्‍हें अद्भुत उपन्‍यासिकाएँ, कहानियाँ और कविताएँ पढ़कर सुनाते थे. अरबी की कविताओं के अनेक छंदों का लयबद्ध संगीत गूँजता रहता था.

पिता जी रूसी भाषा नहीं जानते थे. उन्‍हें अरबी भाषा में ही चेखोव, तोलस्‍तोय और रोमेन रोलां को पढ़ना पड़ा. उस समय इनमें से किसी के बारे में भी पहाड़ी लोग कुछ नहीं जानते थे. दूसरे लेखकों की तुलना में पिता जी को चेखोव ज्यादा पसंद थे, चेखोव की 'गिरगिट' कहानी तो उन्‍हें खास तौर पर बहुत अच्‍छी लगती थी और उन्‍होंने उसे कई बार पढ़ा था.

कुल मिलाकर अरबी भाषा का काफी चलन था. कुछ लेखक तो इसलिए अरबी में लिखते थे कि दागिस्‍तान की कोई अपनी लिपि नहीं थी, कुछ इसलिए कि उन्‍हें दागिस्‍तानी भाषाओं की तुलना में अरबी अधिक समृद्ध और सुंदर प्रतीत होती थी. सभी सरकारी कागजात और दस्‍तावेज अरबी में ही लिखे जाते थे. सब मकबरों पर अरबी में ही सारे आलेख अंकित किए जाते थे. पिताजी इन आलेखों को बहुत अच्‍छी तरह पढ़ और समझ सकते थे.

बाद में ऐसे साल आए, जब अरबी भाषा को बुर्जुआ अवशेष घोषित कर दिया गया. अरबी में लिखने और पढ़नेवाले लोगों को बहुत हानि पहुँची, पुस्‍तकों को भी बहुत हानि पहुँची. दागिस्‍तान के प्रबोधकों, ज्ञान-प्रचारकों अली बेक ताखो-गोदी और जलाल कोर्कमासोव द्वारा बड़ी मेहनत से जमा किए गए पूरे के पूरे पुस्‍तकालयों को नष्‍ट कर दिया गया. जलाल ने सोर्बोना में शिक्षा प्राप्‍त की थी, वह बारह भाषाएँ जानते थे और अनातोल फ्रांस से उनकी मित्रता थी. पहाड़ी गाँवों में वह पुरानी किताबें जमा करते थे, उनके बदले में हथियार, घोड़ा और गाय तथा बाद में मुट्ठी भर आटा और कपड़े का टुकड़ा देते थे. बहुत-सी पांडुलिपियाँ भी गुम हो गईं. यह ऐसी अक्षम्‍य हानि थी जिसकी कभी क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती.

बहुत दुख-दर्दों से भरी हुई हो तुम, दागिस्‍तान की कि़ताब, तुम्‍हें विभिन्‍न लिखावटों, विभिन्‍न लिपियों में लिखा गया है. इसलिए लिखा गया है कि लेखक ऐसा किए बिना रह नहीं सकते थें, उन्‍होंने इसे निःस्‍वार्थ भावना से लिखा है, बदले में किसी प्रकार के पारिश्रमिक की माँग नहीं की. क्रांति ने इस पुस्‍तक का प्रकाशन किया है.

'लाल पर्वत' समाचार पत्र निकलने लगा जिसे बाद में 'पहाड़िया' और फिर 'बोल्‍शेविक पहाड़िया' नाम दिया गया. इसी अखबार में सबसे पहले मेरे पिता जी की कविताएँ छपी थीं. उन्‍होंने इस समाचार पत्र के साथ अनेक वर्षों तक न केवल सहयोग ही किया, बल्कि वह इसके सेक्रेटरी के रूप में भी काम करते रहे. तब मुझे इस बात से हैरानी हुआ करती थी कि अखबार इतनी जल्‍दी कविताएँ छाप देता था. सचमुच मैं हैरान हुए बिना रह भी नहीं सकता था. कारण कि पिता जी ने एक दिन पहले जो कविता मेरे सामने लिखी होती थी, अगले दिन उसे अखबार में पढ़ा जा सकता था. बाद में ये कविताएँ पुस्‍तक का रूप ले लेती थीं. मोटे-मोटे चार खंडों में पिता जी का सारा जीवन, उनका पूरा सृजन संगृहीत है.

पिता जी का उनके अध्‍ययन-कक्ष में, उनकी पुस्‍तकों, कलमों, पेंसिलों, लिखे हुए और बिना लिखे कागजों के करीब ही, जिन्‍हें वह लिख नहीं पाए, देहांत हुआ. खैर, कोई बात नहीं, कुछ दूसरे लोग उन कागजों को लिख देंगे. दागिस्‍तान अब शिक्षा प्राप्‍त कर रहा है, दागिस्‍तान पढ़ता है, दागिस्‍तान लिखता है.

अब मैं आपको यह बताता हूँ कि खुद मैंने कैसे पढ़ना-लिखना सीखा. यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि कैसे मुझे पढ़ना-लिखना सीखने के लिए मजबूर किया गया.

मैं तब पाँच साल का था. सारा दागिस्‍तान ही पढ़ने-लिखने लगा था. एक के बाद एक स्‍कूल, कालेज और तकनीकी कालेज खुलते जा रहे थे. बच्‍चे और बूढे़, औरतें और मर्द - सभी पढ़ने थे. निरक्षरता-उन्‍मूलन-केंद्र और शिक्षा-अभियान आयोजित किए जाते थे. मुझे पहला ककहरा, पहली कापी भी याद है जो पिता जी ने मुझे खरीद कर दी थी. वह खुद गाँव-गाँव जाकर लोगों से पढ़ने की अपील करते थे.

नई लिपि सामने आई. पिता जी ने बड़े उत्‍साह से उसका स्‍वागत किया. उन्‍हें हमेशा इस बात का अफसोस होता रहता था कि लिपि के अभाव के कारण दागिस्‍तान महान रूसी संस्‍कृति से कटा हुआ है. वह कहा करते थे - 'दागिस्‍तान हमारे महान देश का अंग है. उसके लिए उसे जानना, पूरी मानवजाति को जानना, उसके जीवन की पुस्‍तक पढ़ना उसकी लिखावट को समझना-पहचानना जरूरी है.'

'नया पथ', 'नूतन प्रकाश', 'नए लोग' - ये थे उन दिनों के नारे. वक्त की इस पुकार पर पिता जी ने अपने बच्‍चों को भी आगे भेजा. नए जीवन के लिए अपना मार्ग प्रशस्‍त करना आसान नहीं था. नए जीवन के मार्ग पर पत्‍थर फेंकने वालों की संख्‍या बहुत थी. पहले स्‍कूलों की बहूत-सी खिड़कियाँ तोड़ी गईं. शिक्षा और ज्ञान-प्रचार के शत्रु कहते थे - 'यह भला कैसी दुनिया है जिसमें चरवाहा किताब पढ़ता है और आटे की चक्‍की का मालिक पाठ तैयार करता है? उन्‍हें तो भेड़ें चराना आटा पीसना चाहिए.' यों तो और भी ज्यादा बुरी बातें होती थीं. मुझे याद है कि कैसे अध्‍यापक को मारने के लिए चलाई गई गोली स्‍कूल की दीवार पर लटकनेवाले नक्शे पर जा लगी और कैसे इस संबंध में पिता जी ने ये शब्‍द कहे थे - 'इस बदमाश ने एक ही गोली से लगभग सारी दुनिया को ही छलनी नहीं कर दिया.'

उन प्रारंभिक वर्षों में अनेक गाँव में नई शिक्षा का पुरानी, धार्मिक शिक्षा के साथ ताल-मेल बैठाने की कोशिश की गई थी. ऐसा भी हुआ कि ये दोनों आपस में घुल-मिल गईं. यह जान पाना मुश्किल था कि कहाँ दुकान है और कहाँ बाजार, कहाँ अली है और कहाँ ओमार. मेरे बडे़ भाई युवजन के स्‍कूल में पढ़ने जाते थे. मुझे उनसे बड़ी ईर्ष्‍या होती थी, लेकिन कुछ भी नहीं कर सकता था और हर दिन बड़ी बेचैनी से उनका इंतजार करता था., मैं पढ़ने को बहुत उत्‍सुक था. मगर तब मैं सात साल का नहीं हुआ था.

इसी वक्त हमारे गाँव में उनके लिए स्‍कूल खुल गया जो अपने बच्‍चों को खूँजह के दुर्ग में पढ़ने के लिए नहीं भेजना चाहते थे. यह अर्ध-धार्मिक स्‍कूल था. इसे 'हसन का स्‍कूल' कहा जाता था.

1. हसन और कैदी

छापेमारों ने एक प्रतिक्रांतिकारी सैनिक बंदी बना लिया. उसे रक्षक की निगरानी में मु‍सलिम अतायेव के मुख्‍य सैनिक कार्यालय में पहुँचाना था. यह काम हसन को सौंपा गया. शुरू में तो सब कुछ ठीक रहा. लेकिन आखिर नमाज अदा करने का वक्‍त आ गया. हसन एक छोटी-सी नदी के पास रुककर नमाज पढ़ने लगा और कै़दी को उसने अपने नजदीक पत्‍थर पर बिठा दिया. कैदी ने उससे विनती की कि वह उसके हाथ खोल दे, ताकि वह भी नमाज अदा कर ले. हसन ने आश्‍चर्य से पूछा -

'तुम किसलिए इबादत करना चाहते हो? तुम तो सफेद गार्डों का साथ दे रहे हो. तुम तो बेशक कितनी ही इबादत क्‍यों न करो, हर हालत में जहन्‍नुम में जाओगे.'

'फिर भी मैं हूँ तो मुसलमान. मुसलिम अतायेव तो मुझ पर रहम नहीं करेगा, फौरन दूसरी दुनिया को रवाना कर देगा. इसलिए मुझे आख़िरी बार अल्‍लाह की इबादत कर लेनी चाहिए.'

हसन ने यह कहते हुए उसके हाथ खोल दिए -

'तुम तो सोवियत सत्‍ता को कोसते थे, यह कहते थे कि वह मुसलमानों को अल्‍लाह पर यकीन करने से मना करती है. अब तुम जितनी भी चाहो, जी भरकर इबादत कर सकते हो.'

इसके बाद हसन इबादत में इतना खो गया कि जब उसने मुड़कर देखा तो कैदी गायब था, वह भाग गया था. तब गुस्‍से से लाल-पीला होता हुआ हसन चिल्‍लाया -

'अल्‍लाह और इन्‍कलाब की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं तुम्‍हें जरूर ही ढूँढ़कर प‍कड़ लूँगा !'

और उसने सचमुच ही उसे एक गाँव में जा पकड़ा तथा वहाँ पहुँचा दिया, जहाँ पहुँचाना था.

2. इबादत और गाना

सोवियत सत्‍ता के शुरू के सालों में हसन ग्राम-सोवियत का सेक्रेटरी था. इन सालों के दौरान ग्राम-सोवियत की मुहर पूरी तरह से घिस गई और एकदम सपाट हो गई, क्‍योंकि हसन उस पर जरा भी रहम नहीं करता था और हर तरह के कागज या दस्‍तावेज पर मुहर लगा देता था.

अगर कोई कठिन और महत्‍वपूर्ण सवाल सामने आ जाता तो वह कहता -

'सलाह-मशविरा करना होगा.'

प्रसंगवश यह भी बता दूँ कि उसने इतवार की जगह शुक्रवार को यानी रमजान के दिन को छुट्टी का दिन बनाने की भी कोशिश की थी. वह सोवियत सत्‍ता की हिदायतों और निर्णयों का अथक रूप से लोगों में प्रचार करता, उन्‍हें समझाता और अमली शक्‍ल देता. इसके साथ ही उसने उस म‍सजिद की मरम्‍मत भी करवाई जो गृह-युद्ध के दिनों में टूट-फूट गई थी.

मसजिद की मरम्‍मत हो जाने पर उसके समारोही उद्घाटन का दिन नियत किया गया. इसी वक्त इस क्षेत्र में संस्‍कृति-कर्मियों - लेखकों, चित्रकारों, कलाकारों, गायकों, और स्‍वरकारों-संगीतज्ञों का एक बड़ा दल आ गया. क्षेत्रीय केंद्र से इस पूरे दल को उस गाँव में भेज दिया गया, जहाँ हसन ने मसजिद के समारोही उद्घाटन की तैयारी की थी.

गाँव में मेहमानों का जोरदार स्‍वागत किया गया. उन्‍हें घुड़दौड़ें, कुश्तियाँ और मुर्गों की लड़ाई दिखाई गई. मेहमान भी पीछे नहीं रहे - उनमें से किसी ने भाषण दिया, निकट भविष्‍य के आर्थिक कार्यभारों की चर्चा की और फिर उन्‍होंने कन्‍सर्ट पेश किया.

कन्‍सर्ट जब अपने पूरे रंग पर था तो मुअज्जिन ने मसजिद की मीनार पर चढ़कर बाँग दी और इस तरह सच्‍चे मुसलमानों को शाम की नमाज के लिए बुलाया. तब हसन उठकर खड़ा हुआ और उसने अतिथियों को संबोधित करते हुए कहा -

'बहु‍त शुक्रिया कि आपने हमें यह इज्जत बख्‍शी और ऐसे महत्‍वपूर्ण दिन पर, हमारी मसजिद के उद्घाटन के दिन यहाँ तशरीफ लाए. कन्‍सर्ट के लिए भी शुक्रिया. अब हम नमाज पढ़ने जाते हैं. आप चाहें तो कन्‍सर्ट जारी रख सकते हैं, चाहें तो हमारे लौटने तक इंतजार कर सकते हैं, चाहें तो हमारे साथ चल सकते हैं.'

गाँव के कुछ लोग मसजिद में चले गए, कुछ मेहमानों के गाने सुनने को रुके रहे, कुछ दुविधा में पड़कर खड़े रह गए, उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वे क्‍या करें. मेहमान भी उलझन में पड़ गए. लेकिन बाद में छत पर, जो एक तरह से रंगमंच का काम दे रही थी, प्रसिद्ध गायक अराशील, ओमार, गाजी-मुहम्‍मद और के‍गेर की गायिका पातीमात सामने आए. दो मर्दाना समूरी टोपियाँ, एक दुपट्टा, दो पंदूरे और एक खंजड़ी. और पर्वतों के ऊपर एक नया गाना गूँज उठा. यह लेनिन, लाल सितारे और दागिस्‍तान के बारे में गाना था. वे कभी तो पंदूरों और खंजड़ी को सिर के ऊपर ऊँचा उठाकर तथा कभी उनको छाती से लगाकर गाते थे.

इस गाने को सुनकर नमाज पढ़नेवाले कुछ लोग मसजिद से बाहर आ गए और कुछ, इसके विपरीत, मसजिद में चले गए.

यह दिलचस्‍प घटना हसन के गाँव में आज तक सुनाई जाती है.

संस्‍कृति-कर्मियों के दल में मेरे पिता हमजात त्‍सादासा भी थे और उनके आगे घोड़े पर मैं बैठा हुआ था. जो उस वक्‍त कुछ भी नहीं समझता था.

गाँव से विदा लेने के समय मेहमानों ने ग्रामोफोन और लाउडस्‍पीकर भेंट किया.

3. लाउडस्‍पीकर और हसन

मुझे यह मालूम नहीं कि किसने ऐसा करने का आदेश दिया, शायद खुद हसन ने ही, लेकिन मेहमानों द्वारा भेंट किए गए लाउडस्‍पीकर को मसजिद के करीब टेलीफोन के खंभे दिया गया. गाँव में अब सुबह से शाम तक रेडियो का प्रोग्राम चलता रहता. यह आस-पास के पहाड़ों पर कभी तो पायोनियरों के बिगुलों की आवाज, कभी कोई गाना, कभी संगीत गुँजाता रहता, कभी कोई वार्ता सुनाता रहता और कभी सिर्फ खड़-खड़, गड़-गड़ करता रहता.

कभी-कभी मसजिद की मीनार से मुअज्जिन की बाँग और रेडियो की आवाज आपस में घुल-मिल जातीं और उस वक्‍त कुछ भी समझ पाना असंभव होता.

एक दिन क्‍या हुआ ‍कि मुअज्जिन के बाँग देने के लिए मीनार पर जाने के कुछ ही पहले लाउडस्‍पीकर खामोश हो गया. किसी ने चालाकी से खंभे पर तार काट दिया. धर्म-ईमान को माननेवाले मुसलमानों के नमाज अदा कर लेने के फौरन बाद हसन ने खंभे पर चढ़कर तार जोड़ दिया और लाउडस्‍पीकर फिर से काम करने लगा.

अगले दिन भी नमाज के पहले लाउडस्‍पीकर फिर से चुप हो गया. नमाज खत्‍म हो जाने के बाद हसन को फिर से खंभे पर चढ़ना पड़ा.

यह किस्‍सा कई दिनों तक चलता रहा. सभी हैरान होते थे कि हसन इस मामले की तरफ क्‍यों ध्‍यान नहीं देता और 'तोड़-फोड़' की ऐसी हरकत करनेवाले का पता क्‍यों नहीं लगाता.

जब यह मालूम हुआ कि खुद हसन ही रेडियो को हर दिन खराब कर देता था तो गाँव के सभी लोगों की हैरानी का कोई ठिकाना न रहा.

हसन के मन में दो शक्तियों - इबादत और गाने-के बीच संघर्ष होता रहता था. वह इन दोनों में समझौता करवाने की कोशिश करता था. वह नवदंपति का मसजिद में विवाह करवाता और इसके बाद उन्‍हें ग्राम-सोवियत में रजिस्‍ट्री कराने ले जाता.

प्रकृति के अध्‍ययन का भी उसका अपना ही तरीका था. वह खड़ा होकर किसी तारे या चट्टान को ताकता रहता. घंटे बीत जाते और हसन वहीं खड़ा रहता. अगर उसे किसी काम-काज से कहीं जाना होता तो वह अपनी बीवी या कभी-कभी हम छोकरों से वहाँ खड़े अनुरोध करता.

स्‍कूल में वह हमें नक्षत्रों की गति के नियम समझाता. वह हमें भूकंपों, चाँद और सूर्यग्रहण, ज्‍वार और भाटों के बारे में बहुत कुछ बताता. यह सब कुछ वह मानो दिलचस्‍प, मगर कुछ ऐसे अजीब ढंग से बताता कि अब उसकी बातों में से मेरे दिमाग में कुछ भी बाकी नहीं रहा.

उसके शिक्षाक्रम में सभी कुछ - अरबी, रूसी और लातीनी-गड्डमड्ड हो गया था.

वह प्‍लाईवुड के बहुत बड़े टुकड़े पर अरबी में अक्षर लिखता और कहता -

'इन अक्षरों को लिखना सीखो. तुम्‍हारे पिता जिंदगी भर इन्‍हीं अक्षरों को लिखते और पढ़ते रहे.'

इसके बाद वह रूसी भाषा के इतने ही बड़े-बड़े अक्षर लिखता और कहता -

'इन्‍हें सीखो. तुम्‍हारे पिता ने उस उम्र में, जब चश्‍मा लगाया जाता है, इन अक्षरों को सीख लिया था. ये तुम्‍हारे काम आएँगे.'

कभी-कभी वह हमें कुछ याद करने का काम देकर खुद मसजिद में नमाज पढ़ने चला जाता.

जब वह हमें अरबी लिपि सिखाता तो उसके हाथ में डंडा होता और गलतियों या लापरवाही के लिए उसी से हमारी पिटाई करता.

जब रूसी वर्णमाला सिखाने का वक्‍त आता तो वह अपने हाथ में लकीरें खींचने का रूल ले लेता. इस तरह कभी तो डंडे और कभी रूल से हमारी पिटाई होती.

मेरी पिटाई का कारण यह था. हमारा घर मसजिद के बिल्‍कुल करीब था. इन दोनों के बीच एक कदम से ज्‍यादा का फासला नहीं था. मुझे एक छत से दूसरी छत पर कूदने की आदत पड़ गई थी. इसके लिए हसन ने मेरी कसकर पिटाई की. इसके बाद मसजिद बंद करके वहाँ एक तरह का ग्राम-क्‍लब बना दिया गया. मैंने पहले की तरह ही अपनी छलाँगें लगाना जारी रखा. हसन ने इसके लिए फिर से मुझे सजा दी.

पिता जी ने हसन का पक्ष लिया और मुझसे कहा -

'तुम टिड्डे तो नहीं हो कि कूदते-फाँदते रहो. धरती पर चलना सीखो.'

कुछ समय बाद मेरी उम्र सात साल की हो गई और मेरी उछल-कूद, मेरी छलाँगें अपने आप ही खत्‍म हो गईं. मैं खूँजह दुर्ग के स्‍कूल में पढ़ने लगा.

हसन के स्‍कूल की पढ़ाई कोई भी खत्‍म नहीं कर सका, उसे बंद कर दिया गया. हसन सामूहिक फार्म में काम करने लगा, उसे अखिल संघीय कृषि प्रदर्शनी में भेजा गया और वहाँ से वह तमगा लेकर लौटा. दो अन्‍य पदक उसे मोरचे पर मिले. युद्ध के बाद वह कहता रहता था -

'मैं बेशक किसी भी जगह पर क्‍यों न रहा, हर हालत में, यहाँ तक कि पूरे युद्ध के दौरान नियमित रूप से नमाज पढ़ता रहा. अगर मैं ऐसा न करता तो क्‍या जिंदा और पूरी तरह से सही-सलामत घर लौट सकता था?'

थोड़े में यह कि हसन जैसा था, अब भी वैसा ही है. अब वह अवार खान सुराकात के बारे में सामग्री जमा कर रहा है. वह पहले की तरह ही खुशमिजाज, बेहद ईमानदार, बेशक कुछ सनकी आदमी है.

जब कभी मैं अपने गाँव जाता हूँ तो उससे जरूर मिलता हूँ, क्‍योंकि उसे अपना पहला अध्‍यापक मानता हूँ.

मुझे सामान्‍य स्‍कूल में अपना दूसरा अध्‍यापक भी याद है. वह हमें हर दिन अपने बारे में ही किस्‍से-कहानियाँ सुनाता रहता था. अब तो मैं इस बात को अच्‍छी तरह समझता हूँ कि वह असली अवार म्‍यूनखगाउजन था. वह अपना हर पाठ इन सामान्‍य शब्‍दों से ही शुरू करता -

'तो बच्‍चो, तुम्‍हें अपने जीवन की एक घटना सुनाऊँ?'

'सुनाइए!' हम सब मिलकर चिल्‍लाते.

'एक बार मैं अवार कोइसू के ऊपर रज्‍जु-मार्ग से जा रहा था. सामने से एक विशालकाय भालू आ रहा था. हमारे लिए अलग-अलग दिशाओं में जाना किसी तरह भी संभव नहीं था. भालू भी पीछे नहीं हटना चाहता था और मैं भी. रज्‍जु-मार्ग के मध्‍य में हम गुत्‍थमगुत्‍था हो गए. यह भालू उन सभी भालुओं से कहीं ज्‍यादा ताकतवर था जिनसे मेरा पहले वास्‍ता पड़ा था. फिर भी मैंने बड़ी फुरती दिखाई, उसे अयाल से पकड़कर नदी में फेंक दिया.'

हम मुँह बाए हुए अपने अध्‍यापक की गप्‍पें सुना करते थे.

'पिछले सप्‍ताह मैं अपने खेत में जाकर बड़े इतमीनान से वहाँ हल चलाने लगा. मेरे बैल बहुत अच्‍छे हैं, तगड़े हैं. लेकिन वे अचानक रुक गए और उन्‍होंने हल आगे बढ़ाना बंद कर दिया. क्‍या बात हो गई? मैंने गीर से देखा तो यह पाया कि बाँह जितने मोटे-मोटे नौ साँप मेरे हल के साथ लिपटे हुए हैं. उनमें से दो मेरे हाथों की तरफ रेंग रहे थे. अपने होश-हवास ठिकाने रखते हुए मैंने पिस्‍तौल निकाली और सारे के सारे साँपों को गोलियों से उड़ा दिया. इतना अधिक खून बहा कि पूरे खेत की सिंचाई हो गई. मैं चैन से हल चलाकर घर चला गया. कभी-कभी यह चिंता जरूर होती है कि खेत में अनाज की जगह साँप ही न पैदा हो जाएँ?

'तुम्‍हें यह बताऊँ कि कैसे मैं अपने लिए बीवी भगाकर लाया था? उन दिनों मैं त्‍सूनती के जंगलों में डाकुओं को पकड़ा करता था. एक दिन मैं सबसे ज्‍यादा खतरनाक एक डाकू के घर पहुँचा. वह खुद तो भागने में कामयाब हो गया, लेकिन उसकी चाँद जैसी बेटी पीछे घर में ही रह गई थी. हम दोनों की आँखें चार हुईं और हमें फौरन ही एक-दूसरे से मुहब्‍बत हो गई. मैंने उसे गोद में उठाकर घोड़े के जीन पर बिठाया और सरपट घोड़ा दौड़ा ले चला. अचानक मैंने क्‍या देखा कि बहुत ही खतरनाक चालीस डाकू मेरा पीछा कर रहे हैं. उनमें से प्रत्‍येक दाँतों तले खंजर दबाए था, प्रत्‍येक के एक हाथ में तलवार और दूसरे में पिस्‍तौल थी. मैंने मुड़कर देखा और बड़े सधे हुए निशानों से गोलियाँ चलाकर सभी को दूसरी दुनिया में पहुँचा दिया. यह किस्‍सा तो दागिस्‍तान में हर कोई जानता है.'

एक दिन पाठ के वक्‍त में डेस्‍क पर अपने साथ बैठनेवाले बसीर से बातें कर रहा था. अध्‍यापक ने मुझे अपने पास बुलाकर बड़ी कड़ाई से पूछा -

'तुम पढ़ाई के वक्‍त बातें क्‍यों कर रहे हो? बसीर के साथ तुम घंटे भर से क्‍या बक-बक कर रहे हो?'

'हमारे बीच बहस हो रही थी. बसीर कह रहा था कि उस दिन खेत में हल चलाते वक्‍त आपने आठ साँप मारे थे, लेकिन मैं कह रहा था कि अठारह.'

'तुम बसीर से कह दो कि उसकी नहीं, तुम्‍हारी बात सही है.'

उस दिन के बाद से मेरे माता-पिता हमेशा ही इस बात से हैरान होते रहते थे कि मैं कुछ भी पढ़े-लिखे बिना स्‍कूल में अच्‍छे अंक कैसे पा लेता हूँ.

बड़ा दयालु व्‍यक्ति था वह, किंतु एक ही जगह पर देर तक टिककर नहीं रहता था. उसे बहुत दूर-दूर के सुनसान गाँवों में भेजा जाता था - कभी सीलूख तो कभी अरादेरीख में, लेकिन वहाँ भी वह कुछ अधिक समय तक नहीं रुकता था.

कुछ ही समय पहले वह लेखक-संघ के कार्यालय में मेरे पास आया और बोला कि मैं उसे कोई काम दे दूँ.

'तुम क्‍या काम करना चाहोगे?'

'मैं युद्ध के बारे में संस्‍मरण लिख सकता हूँ. बात यह है कि सभी मार्शल मेरे दोस्‍त थे. उनमें से कुछ को तो मैंने मौत के मुँह से भी बचाया.'

मेरे कई अध्‍यापक रहे, पहला, दूसरा, तीसरा. लेकिन अपना असली पहला अध्‍यापक मैं दयालु रूसी अध्‍यापिका वेरा वसील्‍येव्‍ना को ही मानता हूँ. उन्‍होंने मुझे रूसी भाषा के सौंदर्य और रूसी साहित्‍य की महानता से अवगत किया.

अवार अध्‍यापक - प्रशिक्षण कालेज के प्राध्‍यापक और मास्‍को के साहित्‍य-संस्‍थान के प्रोफेसरगण!

मनसूर हैदरबेकोव और पोस्‍पेलोव, मुहम्‍मद हैदारोव और गालीत्‍स्‍की, शांबीनागो, रादत्‍सीग, असमूस, फोख्‍त, बोंदी, रेफोरमात्‍स्‍की, वसीली सेम्‍योनोविच सिदोरीन... बेशक यह सही है कि परीक्षाओं के समय मैंने आपके प्रश्‍नों के अच्‍छी तरह से उत्‍तर नहीं दिए, क्‍योंकि तब रूसी भाषा भी अच्‍छा तरह से नहीं जानता था. किंतु मुझे ऐसा लगता है कि मेरी परीक्षाएँ अभी तक समाप्‍त नहीं हुईं. कभी-कभी मुझे लगता है कि मानो मैं अपने लिए अभी भी कठिन परीक्षाएँ दे रहा हूँ, उनमें असफल हो रहा हूँ और फिर से पहले वर्ष का ही विद्यार्थी बना हुआ हूँ.

वास्‍तव में तो जब कभी मेरी कोई नई पुस्‍तक निकलती है तो मैं कामना करता रहता हूँ कि शायद वह मेरे अध्‍यापकों के हाथों में पहुँच जाए और वे उसे पढ़ें. उस समय मैं भाषाशास्‍त्र या प्राचीन यूनानी साहित्‍य की परीक्षाओं की तुलना में भी अपने दिल में कहीं ज्‍यादा घबराहट महसूस करता हूँ. हो सकता है कि मेरे किन्‍हीं अध्‍यापकों को मेरी वह पुस्‍तक पसंद न आए, उसे अंत तक पढ़े बिना ही वे उसे एक तरफ रख दें और यह कहें - 'रसूल ने अच्‍छी किताब नहीं लिखी, लगता है कि जल्‍दबाजी की है.' यही तो मेरी सबसे कठिन परीक्षा है.

दागिस्‍तान! तुम्‍हारे भी भिन्‍न-भिन्‍न अध्‍यापक थे. तुम्‍हारे भी हसन और म्‍यूनखगाउजन थे. उनमें से कुछ तो उसमें विश्‍वास नहीं रखते थे जिसकी शिक्षा देते थे, कुछ धोखा देते थे, कुछ मार्ग से भटक जाते थे. लेकिन बाद में एक महान और न्‍यायप्रिय, साहसी और दयालु अध्‍यापक आया. यह अध्‍यापक था - रूस, सोवियत संघ, अक्‍तूबर समाजवादी क्रांति. नई जिंदगी, नया स्‍कूल, नई किताब.

पहले तो पूरे गाँव में केवल एक मुल्‍ला ही खत या किताब पढ़ सकता था. अब मुल्‍ला को छोड़कर बाकी सभी किताबें पढ़ते हैं.

छोटी जाति का बड़ा भाग्‍य निकला. दागिस्‍तान के बारे में अभी भी किताब लिखी जा रही है. उसका न तो अंत हुआ है और न कभी होगा ही. अगर इस स्‍वर्णिम और शाश्‍वत पुस्‍तक में मेरे द्वारा लिखा हुआ एक पृष्‍ठ भी होगा तो मैं अपने को सौभाग्‍यशाली मानूँगा. मैं अपना गीत गा रहा हूँ, तुम इसे स्‍वीकार करो, दागिस्‍तान!

मिला मुझे जो कुछ लोगों से, दागिस्‍तान!
है समान अधिकार तुम्‍हारा भी उस पर,
अपने सारे पदक, सभी तमगे अपने
मीत, सजाऊँ तुम पर, चमकें श्रृंग-शिखर.
स्‍तुति-गान मैं तुमको, अपने भेंट करूँ
मैं अपने शब्‍दों से कविताएँ बुनकर,
मुझे वनों का सिर्फ लबादा अपना दो
हिम से ढकी चोटियों की टोपी सुंदर.


तो बस, अब लेखनी रखता हूँ. हमारी जुदाई का समय आ गया. अगर अल्‍लाह ने चाहा तो फिर मिलेंगे.

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